Wednesday, May 2, 2007

भाग - ग्यारह


मंगलू ले अपन नोनी बाबू के दुख ह अब नइ सहावत रहय। सोनिया मांचा धर ले रिहि। एती नाकुन अउ केतकी ह निच्चट सुखागे रिहिन। मोंगरा ह पिंवरागे रिहिस। अइसे लागत रहय के कोनों टोनही ह इन्कर देह के लहू ल चुहक डारे हवय। रोटी के दुख मं मोंगरा के बिहाव के गोठ ह भुलागे।

मंगलू जब चउरा उप्पर अकेला बइठे त मने मन गुनय के अइसने लागथे जइसे दुख बपुरा ह हमर घर ले मोहा गे हावय। जम्मो किसिम के दुख ह हमरे घर मं निगगे हावय। ओला ए दुख ले निकरे के रद्दा नइ दिखे।

कुघरु ले सोन निकलइया मन ए कभू नइ सोचे के पवन ह चलही त कुघरु के ढ़ेरी ह छरिया जाही अउ सोन के बलदा मं कुघरु हाथ आही। कहूं कुघरु के भितिहा बनथे। केतेक गुनेव फेर होइस का। मेंह अतेक दुख मं कलप कलपके जिए बर रद्दा सोचेंव, ये अलकरहा दुख ह मोर जीव के काल बनही तेला में नइ जानत रहेंव। एक ठिन सीथा अउ कोरी भर मुंखहा, काकर काकर चेत करौं ? में समझे नइ पावंव ? काबर मोर दिन ह अइसने आगे हे। रामधन ले लागा लेंव, घर ल गिरो मढ़ा देवं, अउ फेर नउकरी घला छुटागे। नइ जानव भगवान ह मोला वइसने के कहती बना डारे हवय। ‘आस लडूध, जास लडूध, ठेंगा के बरात, मूठा भर भात, खाय उहूगे खराब’ मंगलू ह बेरा कुबेरा इही गुनय। मोला कोनों बूता नइ मिलही त मोर नोनी बाबू मन भूख मं तलफ तलफ के मरेच जाहीं। मनखे ल जिये बर पहिली अन्न चाही, ओखर बिन मनखे ह एक पांव नइ रेंगे सकय।
क्रमशः

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